Mythological Stories in Hindi

नमस्कार दोस्तो, हमेशा की तरह आज फिर से एक नए पोस्ट Mythological Stories in Hindi के साथ हाजिर है। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट आपको पसंद आयेगी और आप इसे अपने दोस्तो के साथ जरूर शेयर करेंगे।

भगवान शिव को क्यों त्रिपुरारी कहा जाता है?

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धार्मिक पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युत माली । भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुनकर तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्मा जी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मा जी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगो क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा। लेकिन ब्रह्मा जी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा।

तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्मा जी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा। जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घुमा जा सके। 1000 साल बाद जब हम मिले और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाए और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्मा जी ने उन्हें यह वरदान दे दिया। तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए।

ब्रह्मा जी के कहने पर मय दानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमलाक्ष के लिए चांदी का और विद्युतमाली के लिए लोहे का नगर बनवाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर जी की शरण में गए।

इंद्र की बात सुन भगवान शिव जी ने इन तीनों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। इस दिव्य रथ की हर एक चीज देवताओं से बनी। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चार घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बने। भगवान शिव खुद बाण बने और बाण की नोक बने अग्नि देव।

इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव जी। भगवानों से बने इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही तीनों रथ एक सीध मे आए और भगवान शिव ने बाण छोड़े और तीनों भाईओ का नाश कर दिया। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ इसलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा। इसी वध के बाद भगवान शिवजी को त्रिपुरारी कहा जाने लगा।

शांतनु

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बहुत पुरानी बात है शांतनु नाम के एक राजा हस्तिनापुर में राज्य करते थे। उन्हें शिकार खेलना अति प्रिय था। एक दिन राजा शांतनु ने नदी के तट पर एक बहुत सुंदर स्त्री को देखा। वह कोई साधारण नारी नहीं थी बल्कि देवी गंगा थी। परंतु राजा शांतनु इस बात से अनभिज्ञ थे।

राजा ने पूछा हे सुंदरी ! आप कौन है ? मेरी अभिलाषा है कि आप मेरी अर्धांगिनी और रानी का स्थान ग्रहण करें। मैं अपनी संपूर्ण संपत्ति और राज्य आपको दे दूंगा। देवी गंगा ने अपनी आंखें नीचे झुका ली और उत्तर दिया – राजन यदि आप मुझसे विवाह करना चाहते हैं तो आपको वहीं स्वीकार करना होगा जो मैं चाहूँगी। राजा ने उत्तर में कहा – आप जो भी कहें वह मुझे स्वीकार होगा।

गंगा ने कहा – इससे पूर्व आप मुझसे सहमत हो कृपया मेरी बात सुन ले तभी मैं आपकी पत्नी का स्थान ग्रहण कर सकती हूं। आप और आपके कर्मचारी कभी यह प्रश्न नहीं करेंगे कि मैं कौन हूं और कहां से आई हूं। मैं अपनी इच्छा अनुसार किसी भी काम को करूँ इसकी अनुमति मुझे देनी होगी चाहे वह कार्य आपकी दृष्टि में उचित हो या अनुचित। आप मुझ पर क्रोधित कभी नहीं होंगे और ना ही मुझे विचलित तथा अप्रसन्न करेंगे। यदि आपने ऐसा किया तो मैं शीघ्र ही आपका त्याग कर दूंगी। राजा शांतनु तुरंत सभी बातों से सहमत हो गए और उनका विवाह हो गया और वह सुखी जीवन भी व्यतीत करने लगे।

राजा यह देखकर हर्षित थे कि उनकी पत्नी एक आदर्श रानी थी। अपने कर्तव्य का पालन करती थी। कुछ वर्षों के पश्चात उनकी पहली संतान का जन्म हुआ। एक दिन शांतनु ने देखा कि उनकी पत्नी बालक को नदी की ओर ले जा रही है। नदी तट पर खड़े होकर उन्होंने बालक को जल में प्रवाहित कर दिया। शांतनु भयभीत हो उठे परंतु उन्हें अपना वचन याद आ गया कि वह पत्नी से कभी कोई प्रश्न नहीं करेंगे। समय व्यतीत होता गया शांतनु की संताने तो हुई परंतु गंगा ने एक-एक करके सबको नदी में बहा दिया।

जब आठवीं संतान का जन्म हुआ तब गंगा उसे भी नदी की ओर ले गई। परंतु इस बार शांतनु के धैर्य की सीमा टूट गई और वह चिल्लाए रुको – रुक जाओ यह कहते हुए उन्होंने रानी के सामने हाथ फैलाकर बालक को नदी में ना फेंकने की भीख मांगी। शांतनु अधीर होकर बोले – तुम हर बार हमारे बच्चे को नदी में क्यों फेंक देती हो ? रानी ने उत्तर दिया – राजन आपने वचन दिया था कि आप मुझसे कभी किसी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछेंगे। आपने वचन भंग किया है इसलिए मुझे आपको छोड़कर जाना होगा। मैं गंगा हूं देवी गंगा।

राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा – आप यहां कैसे आई?

गंगा ने कहा – राजन मैं संसार में एक श्राप के कारण आई हूं। वशिष्ठ ने अष्ट वसूओं के उत्पात से क्रोधित होकर उन्हें मृत्यु लोक में मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया। अष्ट वसूओं ने ऋषि से क्षमा मांगी और प्रार्थना की कि वह उनके अपराध की इतना बड़ा दंड न दे। वशिष्ठ ने कहा तुम में से सात वसूओं का तो जन्म लेते ही उद्धार हो जाएगा परंतु महाउत्पाती आठवां वसु पृथ्वी पर रहेगा। आपकी जिन संतानों को मैंने नदी में बहा दिया वे वसु के नाम के देवगण थे।

बस वशिष्ठ के श्राप को पूर्ण करने के लिए उनका पृथ्वी पर जन्म लेना आवश्यक था। उन्हें सिर्फ मुक्त करने के लिए ही मैं इस संसार में आकर आपसे विवाह किया और उन्हें जन्म दिया। वसु स्वर्ग जाना चाहते थे अतः जैसे ही उन्होंने जन्म लिया मैंने उन्हें भी प्रवाहित कर दिया। परंतु यह अंतिम बालक है मैं इसे नदी में नहीं बहाउंगी। इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगी जब यह बड़ा हो जाएगा तब जाकर आपको सौंप दूंगी। गंगा बालक को लेकर चली गई और शांतनु दुखी अवस्था में महल लौट गए।

शुद्ध हरि कथा

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महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास बाबा एक बहुत विचित्र संत हुए हैं इसके संबंध में एक कथा प्रसिद्ध है यह हनुमान जी के भक्त थे और इनको हनुमान जी के दर्शन हुआ करते थे। एक बार बाबा जी ने हनुमान जी से कहा कि महाराज आप एक दिन सब लोगों को दर्शन दे। हनुमान जी ने कहा कि तुम लोगों को इकट्ठा करो तो मैं दर्शन दूंगा।

बाबा जी बोले – लोगों को तो मैं हरि कथा से इकट्ठा कर दूंगा। हनुमान जी ने कहा कि शुद्ध हरि कथा करना , हरि कथा से लोग आते हैं, शुद्ध हरिकथा से मैं आ जाऊंगा। बाबा जी बोले की शुद्ध हरि कथा ही करूंगा। संत तथा राजगुरु होने के कारण बाबा जी का ऐसा प्रभाव था कि वह जहां जाते वहीं हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे हो जाते।

उन्होंने एक शहर में जाकर कहा कि – आज रात शहर के बाहर अमुक समय पर बहुत से लोग इकट्ठे हो गए। सब गाने बजाने वाले अगर बैठ गए और कीर्तन प्रारंभ हो गया। बीच-बीच में बाबा जी भगवान की कथा कहते और फिर कीर्तन करने लगते। ऐसा करते-करते हुए केवल कीर्तन मे ही मस्त हो गए। लोगों को यह आशा थी कि बाबा जी कथा सुनाएंगे पर वे तो कीर्तन ही करते चले गए। लोगों के भीतर असली भाव तो था नहीं। लोगों ने सोचा – यह कीर्तन तो हम घर पर ही कर लिया करते हैं यहां कब तक बैठे रहेंगे?ऐसा कहकर वह धीरे-धीरे उठकर जाने लगे।

वास्तव में वह घर पर कीर्तन करते नहीं थे। घर में कीर्तन करने की बात तो वहां से उठने का बहाना था। बाबा जी के पास में बैठे लोग धीरे धीरे उठ गए। थोड़ी देर में सभी लोग उठकर चले गए। धीरे-धीरे गाने बजाने वाले भी खिसक गए। बाबा जी तो आंखें बंद करके अपनी मस्ती में कीर्तन करते ही रहे।

क्योंकि वह हनुमान जी की आज्ञा के अनुसार शुद्ध हरि कथा कर रहे थे। प्रकाश की व्यवस्था करने वाले भी चले गए। अब दरी वालों को मुश्किल हो गई कि बाबा जी तो मस्ती से नाच रहे हैं दरी कैसे उठाएं ? उन्होंने भी अटकल लगाई जब बाबा जी नाचते नाचते उधर गए तो इधर की दरी इकट्ठी कर ली और जब वह इधर आए तो उधर की दरी इकट्ठी कर ली और चले गए।

जब सब चले गए तब हनुमान जी प्रकट हो गए। बाबा जी ने हनुमान जी से बोला कि महाराज सबको दर्शन दो महाराज। हनुमान जी बोले – सब है कहां ? वहां और कोई तो और था नहीं केवल बाबा जी थे। इस प्रकार भावपूर्वक केवल भगवान नाम संकीर्तन करना ही शुद्ध हरि कथा है। इस शुद्ध हरिकथा से भगवान साक्षात प्रकट हो जाते हैं।

तपस्या का फल

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भगवान शंकर को पति के रूप में पानी हेतु माता पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी। उनकी तपस्या पूर्णता की ओर थी। एक समय वे भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न बैठी थी। उसी समय उन्हें एक बालक के डूबने की चीख सुनाई दी। माता तुरंत उठकर वहां पहुंची। उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है। बालक अपनी जान बचाने के लिए प्रयास कर रहा है तथा मगरमच्छ उसे आहार बनाने का। करुणामई मां को बालक पर दया आ गई। उन्होंने मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोड़ दीजिए। इसे आहार न बनाएं।

मगरमच्छ बोला – माता यह मेरा आहार है, मुझे हर छठे दिन उदर पूर्ति हेतु जो पहले मिलता है उसे मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है। माता ने फिर कहा – आप इसे छोड़ दें, इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल दूंगी। मगरमच्छ ने कहा ठीक है। माता ने उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का पुण्य फल उस मगरमच्छ को दे दिया। मगरमच्छ तपस्या के फल को प्राप्त कर सूर्य की भांति चमक उठा। उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई। उसने कहा माता आप अपना पुण्य वापस ले लें। मैं इस बालक को यूं ही छोड़ दूंगा।

माता ने मना कर दिया तथा ममतामई माता बालक को गोद में लेकर दुलारने लगी। बालक को सुरक्षित लौटाकर माता ने अपने स्थान पर वापस आकर तप शुरू कर दिया।

भगवान शिव तुरंत ही वहां प्रकट हो गए और बोले – पार्वती अब तुम्हें तप करने की आवश्यकता नहीं है। हर प्राणी में मेरा ही वास है। तुमने उस मगरमच्छ को तप का फल दिया वह मुझे ही प्राप्त हुआ। अतः तुम्हारा तप फल अनंत गुना हो गया। तुमने करुणा वश द्रवित होकर किसी प्राणी की रक्षा की। अतः मैं तुम पर प्रसन्न हूं तथा तुम्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं। जो परहित की कामना करता है उस पर परमात्मा की असीम कृपा होती है। जो व्यक्ति असहयों की सहायता करता है था करुणाकारी होता है ईश्वर उसको स्वीकार करते हैं। यह कथा ब्रह्म पुराण में उल्लेखित है।

होलिका और प्रहलाद

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होलिका दहन त्यौहार का मुख्य संबंध बालक प्रहलाद से है। प्रहलाद था तो विष्णु भक्त मगर उसने ऐसे परिवार में जन्म लिया जिसका मुखिया क्रूर और निर्दयी था। प्रहलाद का पिता अर्थात निर्दयी हिरण्यकश्यप अपने आप को भगवान समझता था और प्रजा से भी यही उम्मीद करता था कि वह भी उसे ही पूजे और भगवान माने। ऐसा नहीं करने वाले को या तो मार दिया जाता था या कैदखाने में डाल दिया जाता था। जब हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद विष्णु भक्त निकला तो पहले तो उस निर्दयी ने उसे डराया धमकाया और अनेक प्रकार से उस पर दबाव बनाया कि वह विष्णु को छोड़ उसका पूजन करें।

मगर प्रहलाद की भगवान विष्णु में अटूट श्रद्धा थी और वह विचलित हुए बिना उन्ही को पूजता रहा। सारे यत्न करने के बाद भी जब प्रहलाद नहीं माना तो हिरण्यकश्यप ने उसे मार डालने की सोची। इसके लिए उसने अनेक उपाय भी किया। मगर वह मरा नहीं। अंत में हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया जिसे अग्नि में ना जलने का वरदान था और प्रहलाद को मारने की योजना बनाई।

एक दिन निर्दयी राजा ने बहुत सी लकड़ियों का ढेर लगवाया और उनमें आग लगवा दी। जब सारी लकड़ियां तीव्र वेग से जलने लगी तब राजा ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर जलती लड़कियों के बीच जा बैठे। होलिका ने वैसा ही किया। देव योग से प्रहलाद तो बच गया परंतु होलिका वरदान प्राप्त होने के बावजूद भी जलकर भस्म हो गई। तभी से प्रहलाद की भक्ति और राक्षसी होलिका की स्मृति में इस त्यौहार को मनाते आ रहे हैं।

दोस्तो, आज की ये पोस्ट Mythological Stories in Hindi आपको कैसी लगी ये आप हमें कॉमेंट करके बता सकते है। ऐसे ही मजेदार कहानियां आपके लिए आगे भी लेकर आते रहेंगे।

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