Friendship Story in Hindi

नमस्कार दोस्तों,हमेशा की तरह आज फिर से एक नए पोस्ट Friendship Story in Hindi के साथ हाजिर है। हु उम्मीद करते है की ये पोस्ट आपको पसंद आएगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करेंगे।

तीन मित्र

Friendship Story in Hindi

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यह कहानी है तीन मित्रों की जो एक ही शहर में रहते थे। उनके नाम थे रवि, रमेश और राकेश। तीनों मित्र शहर में बचपन से साथ रहते थे, साथ में स्कूल की पढ़ाई किया.कॉलेज खत्म किया और कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद रवि विदेश चला गया और वहां एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी पदवी पर कार्यरत हो गया। राकेश ने भी अपने ही शहर में एक सरकारी नौकरी तलाश ली । अतः राकेश भी अपनी सरकारी नौकरी में व्यस्त हो गया तथा रमेश ने अपने पैतृक व्यवसाय जो की किराने की दुकान थी उसे संभालना शुरू किया।

जैसे-जैसे वक्त बिता राकेश और रमेश भी एक शहर में होने के बावजूद महीना तक मिल नहीं पाते थे। इस प्रकार 12 वर्ष का समय निकल गया। 12 वर्ष पश्चात रवि विदेश से अपने शहर लौटा और उसी शहर के एक अच्छे होटल में उसने कमरा बुक किया। दिनभर वह अपनी कंपनी के काम में व्यस्त रहा और शाम को जब होटल के कमरे में लौटा तो उसने अपने मित्र राकेश को फोन किया।

राकेश ने करीब दो-तीन साल बाद रवि की आवाज सुनी और जब उसे पता चला कि रवि इस शहर में एक होटल में ठहरा हुआ है तो उसने कहा – मैं भी उसी होटल के नजदीक से गुजर रहा हूं और तुरंत उसने अपनी गाड़ी होटल की ओर मोड़ ली। दोनों मित्र एक दूसरे से वर्षों बाद मिलकर बेहद प्रसन्न हुए। एक दूसरे की खबर पूछी और अपने स्कूल के दिनों को तथा कॉलेज के दिनों को याद करके कभी मुस्कुराते तो कभी उनके नेत्र सजल हा जाते थे।

दो-तीन घंटे तक दोनों मित्रों ने खूब बातें की और अपनी स्मृतियों को ताज़ा किया और फिर अचानक रवि ने कहा कि रमेश के क्या हाल-चाल है? इस पर राकेश ने जवाब दिया कि पिछले 6 महीने से मेरी उससे फोन पर बात नहीं हुई है और उसे देखे हुए करीब एक वर्ष से अधिक समय बीत गया था। एक ही शहर में रहने के बावजूद हम दोनों एक दूसरे से नहीं मिल पाते। मैं अपनी नौकरी में व्यस्त रहता हूं और शायद वह अपने पैतृक व्यवसाय में व्यस्त है।

राकेश ने कहा – मैं अभी उसे फोन करके यहां बुला लेता हूं। तुमसे मिलकर वह भी गदगद हो जाएगा। लेकिन रवि ने कहा क्यों ना उसकी दुकान पर चल के उसे आश्चर्यचकित किया जाए? मुझे विश्वास है जब वह हम दोनों को एक साथ देखेगा तो उसके आनंद का ठिकाना ना रहेगा। दोनों मित्र अपने तीसरे मित्र रमेश को मिलने के लिए उसकी दुकान की ओर चल पड़े। दुकान कुछ एक दो किलोमीटर ही दूर थी। जब दुकान पर पहुंचे तो देखा की एक 8 -10 साल का बच्चा वहां बैठा है और उन दोनों को देखकर बच्चा कहता है कि आपको कुछ खरीदना है? राकेश ने कहा रवि यह रमेश का बेटा है और इसका नाम सोनू है।

रवि ने सोनू को गले से लगा लिया और उसे देखकर बेहद प्रसन्न हुआ। कुछ देर पश्चात राकेश ने कहा – सोनू रमेश कहां है? तुम्हारे पिताजी को बुलाओ। इतना सुनते ही सोनू का चेहरा लाल पड़ गया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने रोते-रोते कहा अंकल पिताजी को तो गुजरे हुए एक साल हो गया। यह सुनते ही राकेश और रवि के मानो पांव के नीचे की जमीन खिसक गई।

दोनों अवाक से खड़े रह गए और रवि ने सोनू को एक बार फिर गले लगा लिया और जोर-जोर से रोते हुए पूछा कि यह सब कैसे हुआ? इस पर सोनू ने जवाब दिया कि उन्हें एक लाइलाज बीमारी हो गई थी और इस बीमारी ने उनके प्राण ले लिए।

राकेश भी अपने नेत्रों को सजल होने से ना रोक पाया और उसने कहा एक ही शहर में रहने के बावजूद मुझे यह नहीं पता था कि मेरे बचपन का मित्र एक वर्ष पहले ही मुझे छोड़कर जा चुका है। ऐसी व्यवस्था किस काम की? ऐसी नौकरी किस काम की जिसने मुझे मेरे प्रिय मित्र से मिलने तक का मौका नहीं दिया।

रिश्ते जो भी हमें मिले हैं चाहे वह मां-बाप का हो, पत्नी का हो, पुत्र का हो, पुत्री का हो, भाई का हो, मित्र का हो या अन्य रिश्ते हो। इन्हें संभाल कर रखने की जरूरत है जीवन की भाग दौड़ में, पैसों की भाग दौड़ में कभी नहीं भूलना चाहिए कि रिश्तो की हमारे जीवन में अहम भूमिका है। रिश्ते हमारे परिवार का आधार है तथा हमारा परिवार समाज का और समाज संस्कृति का आधार है। संस्कृति देश का आधार है। जीवन की आपदापि में अपने लिए, अपने परिवार के लिए तथा अपने प्रिय जनों के लिए समय निकाले।

दो मित्र

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एक गांव में दो मित्र रहते थे। उनमें से एक अंधा था। दोनों में इतनी मित्रता थी कि वह सदा एक दूसरे के साथ रहते थे, दोनों इकट्ठा रहते यहां तक के एक ही पत्तल में खाते थे, इकट्ठा उठते बैठते-सोते थे। दोनों लगते भी एक से थे। वे दोनों बड़े अच्छे गायक थे वे गाते बजाते और इसी से अपना पेट भरते थे। अंधा ढोल बजाता था और सुनखा धनतारा। किसी का जन्मदिन हो, जागरण हो, विवाह हो उन्हें दूर-दूर से बुलावा आता। रामनवमी, जन्माष्टमी, कथा, सत्संग में उन्हें बुलाया जाता था। विवाह शादी में तो उन्हें बहुत आमदनी होती थी।

सुनखा सारंगी का पारंगत था और नरम दिल था उसमें किसी प्रकार का छल नहीं था। उसकी राज दरबार में बड़ी प्रशंसा होती थी। अंधा ढोल या तबला बजाता था। उसकी आवाज उतनी अच्छी नहीं थी ऊपर से वह बड़ा शकी और वहमी था। सुनखा हर वक्त उसे बाह पकड़े चलाए रखत। जो भी आमदनी होती या कोई वस्तु मिलती उसे अंधे के साथ बांट कर लेता। कभी भी उससे हेरा फेरी नहीं करता। फिर भी अंधा उस पर विश्वास नहीं करता था।

कई लोग होते हैं जिन्हें चुगली करने की आदत होती है। वे एक की बात दूसरे से बड़ा चढ़कर करते हैं। ऐसे ही एक चालाक आदमी ने अंधे से कहा – भाई तुम्हारे पास गुण भी है, तुम्हें अनुभव भी है. हां तुम्हारी आंखों में रोशनी नहीं है। तुम्हारे मन में तो प्रकाश है। उसे तुम्हारे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए।

अंधा बोला – तुम यह क्या कह रहे हो भाई साफ-साफ बताओ बात क्या है? आदमी बोला – देख भाई तू ढोल बजाता है और तुम्हारा मित्र धन तारा। तुम दोनों अपनी-अपनी कला में सिद्ध हो। तुम्हें लोग त्योहार के दिन खिचड़ी बबरु भी घर के लिए देते होंगे। नहीं भैया मैं तो बबरु का स्वाद भी नहीं चखा। तभी तुझे समझा रहा हूं उस आदमी ने कहा। अंधे ने सोचा अच्छी-अच्छी चीज वह स्वयं खा जाता है और मुझे सुखा टिक्कड़ दे देता है।

एक दिन अंधे ने हिम्मत कर सुनखे को कहा देख भाई हम इकठठे तो रहते हैं, इकट्ठे बैठकर खाते नहीं। आज से हम इकट्ठा ही खाएंगे । सूनखे ने कहा जैसा आपको अच्छा लगता है ठीक है। उस दिन से वे इकट्ठा खाने लगे। सुनखा गांव में जाता कुछ इकट्ठा करता और दोनों एक ही पत्तल पर खाते। एक दिन जब सुनखा गांव में अन्न लेने गया था उसे वही चालाक आदमी वहां मिला। उसने अंधे को कहा – सुनाइए भाई आपका क्या हाल है ? ठीक है भैया समय कट रहा है आपके कहने के बाद हम एक ही पत्तल में इकट्ठा खाते हैं।

पर भैया तुझे क्या पता जब वह अच्छा-अच्छा लाता है तो अकेला ही खा जाता है, तुझे तो रुखा सुखा ही देता है ऐसा कहकर वह चला गया। अंधा फिर शक करने लगा। सुनखा मांग कर लाता और अंधे को भी खिलाता। अंधे ने एक दिन कहा हमें आज अच्छा-अच्छा खाने को मिलेगा मुझे ऐसा लगता है। अंधा लालची भी था। उन्हें आज किसी ने अपने घर खाने के लिए बुलाया था। अंधे ने बाह पकड़ी और चल दिया।

चलते-चलते वे उस घर में पहुंच गए जहां से न्योता था। वहां घर वालों ने उनके हाथ धुलाई और थालियां में खीर परोस दी। दो थालियां में खीर पड़ी जान अंधे ने कहा देखो जी एक थाली आप उठा लो। उन्होंने एक थाली उठा ली। महाराज खाना आरंभ कीजिए घर वालों ने कहा। यह सुन सूनखा खाने लग गया। अंधा ने सोचा सुनखा ज्यादा ही न खा जाए यह सोच कर अंधा जल्दी जल्दी खाने लगा।

सुनखा कुछ नहीं बोला अब अंधे ने सोचा मैं दोनों हाथों से खाता हूं वह दोनों हाथों से खाने लग गया। सुनखा फिर भी चुप रहा अब अंधे ने थाली ही उठाई और मुंह से लगा ली सुनखा फिर भी चुप रहा। वह नीचे गिरी खीर भी खाने लगा।

सूनखा अभी भी कुछ खा रहा है यह सोच अंधा जल गया। वह उसे हर कुछ बोलने लगा। बोलते क्यों नहीं तू चुप क्यों है? चुपचाप भैंस की तरह बैठा है। जरूर कुछ दाल में काला है मन में यह सोच वह जोर-जोर से रोने लग पड़ा। लोगों मैं लुट गया मैं मर गया यह सुनखा मुझे भूखे मार रहा है। उसने फिर खीर की थाली मुंह में लगा ली सुनक्खा उसकी ओर देखता रहा लेकिन कुछ नहीं बोला। अंधे को देख रहे घर के आदमी हंसने लगे

मित्र की सलाह

Friendship Story in Hindi

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दुर्गादास था तो धनी किसान किंतु बहुत आलसी था। वह ना अपने खेत देखने जाता था ना खलिहान। अपनी गाय भैंसों की भी वह खोज खबर नहीं रखता था। सब काम वह नौकरों पर छोड़ देता था।

उसके आलस और कुप्रबंध से उसके घर की व्यवस्था बिगड़ गई। उसकी खेती में हानि होने लगी। गायों के दूध घी से भी उसे कोई अच्छा लाभ नहीं होता था। एक दिन दुर्गा दास का मित्र हरिश्चंद्र उसके घर आया। हरिश्चंद्र ने दुर्गा दास के घर का हाल देखा। उसने यह समझ लिया कि समझाने से आलसी दुर्गादास अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा इसलिए उसने अपने मित्र दुर्गा दास की भलाई करने के लिए उससे कहा – मित्र तुम्हारे विपत्ति देखकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। तुम्हारी दरिद्रता को दूर करने का एक सरल उपाय मैं जानता हूं। दुर्गादास – कृपा करके मुझे वो उपाय तुम मुझे बता दो मैं उसे अवश्य करूंगा।

हरिश्चंद्र सब पक्षियों के जागने से पहले ही मानसरोवर रहने वाला एक सफेद हंस पृथ्वी पर आता है। वह दोपहर दिन चढे लौट जाता है। यह तो पता नहीं कि वह कब कहां आएगा? किंतु जो उसका दर्शन कर लेता है उसको कभी किसी बात की कमी नहीं होती। दुर्गादास – कुछ भी हो मैं उस हंस का दर्शन अवश्य करूंगा।

हरिश्चंद्र चला गया दुर्गादास दूसरे दिन बड़े सवेरे उठा और घर से बाहर निकाला और हंस की खोज में खलिहान में गया। वहां उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेर से गेहूं अपने ढेर में डालने के लिए उठा रहा है। दुर्गादास को देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा मांगने लगे। खलिहान से वह घर लौट आया और गौशाला में गया। वहां का रखवाला गाय का दूध निकालकर अपनी स्त्री के लोटे में डाल रहा था।

दुर्गादास ने उसे डांटा और घर पर जलपान करके हंस की खोज में फिर निकला और खेत पर गया उसने देखा कि खेत पर अब तक मजदूर आए ही नहीं थे। वह वहां रुक गया जब मजदूर आए तो उन्हें देर से आने का उसने उलाहना दिया। इस प्रकार वह जहां गया वहीं उसकी कोई ना कोई हानि रुक गई।

सफेद हंस की खोज में दुर्गादास प्रतिदिन सवेरे उठना और घूमने लगा। अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे। उसके यहां चोरी हनी बंद हो गई। पहले वह रोगी रहता था। अब उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया। जिस खेत में उसे 10 मन अन्न मिलता था उसे अब 25 मन अन्न मिलने लगा। गौशाला से दूध बहुत अधिक आने लगा।

एक दिन फिर दुर्गादास का मित्र हरिश्चंद्र उसके घर आया। दुर्गा दास ने कहा – मित्र सफेद हंस तो मुझे अब तक नहीं दिखा किंतु उसकी खोज में लगने से मुझे लाभ बहुत हुआ है। हरिश्चंद्र हंस पड़ा और बोला – परिश्रम करना ही वह सफेद हंस है। परिश्रम के पंख सदा उजले होते हैं। जो परिश्रम ना करके अपना काम नौकरों पर छोड़ देता है। वह हानि उठाता है और जो स्वयं करता है वह संपत्ति और सम्मान पाता है।

मित्रता की परख

Friendship Story in Hindi

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एक गाँव मे दो दोस्त थे दोनों का नाम दीनानाथ और रामनाथ था। दोनों मे गहरी दोस्ती थी दोनों ही एक दूसरे पर जान छिड़कने का दम भर करते थे। एक दिन दोनों घने जंगल से होकर गुजर रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक भालू आता दिखाई दिया। वह उनकी तरफ ही आ रहा था। रमन तेजी से भाग करके पेड़ पर चढ़ गया। उसने अपने मित्र दीनानाथ की तनिक भी चिंता नहीं कि। वह बोला भाई दीनानाथ जान है तो जहान है। तुम भी अपने बचाव का रास्ता खोजो।

दीनानाथ को पेड़ पर चढ़ने नहीं आता था और ना ही उसके पास वहां से भागने का कोई मौका था। अचानक उसके मस्तिष्क में एक सुनी सुनाई बात याद आई कि मृतक को भालू नहीं खाते। वह तुरंत ही सांस रोककर बेजान सा होकर लेट गया उसने अपनी आंखें बंद कर ली।

भालू दीनानाथ के पास आया और उसके शरीर को सूंघकर चुपचाप आगे बढ़ गया। जब भालू कुछ दूर निकल गया तब दीनानाथ उठ बैठा और रामनाथ भी पेड़ से नीचे उतर आया। उसने दीनानाथ से पूछा – भालू ने तुम्हारे कान में क्या कहा था?

दीनानाथ बोला – उसने कहा कि स्वार्थी मित्रों से हमेशा दूर रहना चाहिए।

मित्रता का दम भरना बेशक अच्छी बात है। लेकिन यदि मित्रता निभाना नहीं आता तो सब बेकार है। सच्चे मित्र की परख तो संकटकाल में ही होती है। भालू ने बेशक दीनानाथ के कान में कुछ नहीं कहा परंतु वह समझ गया कि रामनाथ से किनारा करना ही ठीक होगा। अतः स्वार्थी मित्रों से बचकर रहना चाहिए।

सच्ची मित्रता

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दो मित्र थे दोनों में बहुत ही गहरी मित्रता थी। लोग भी उनकी मित्रता की मिसाल दिया करते थे। संयोगवश उनमें किसी गलतफहमी के कारण आपस में मनमुटाव हो गया। यह मनमुटाव दुश्मनी की हद तक बढ़ गया। कल तक जहां दोनों मित्र थे आज वह एक दूसरे की शक्ल तक देखना पसंद नहीं करते थे। गांव के सभी लोग हैरान थे कि उन दोनों मित्रों में दुश्मनी कैसे हो गई?

एक दिन एक मित्र के पिता की मृत्यु हो गई गांव के सभी लोग उसके घर पर शोक प्रकट करने के लिए उपस्थित हुए थे। कुछ देर में वहां उसका दूसरा मित्र भी आया और उसने भी इस दुख पर शोक प्रकट किया। सभी लोग हैरान थे कि वह यहां कैसे उपस्थित हो गया। एक व्यक्ति ने उससे पूछा तुम्हारी तो इससे मित्रता ही खत्म हो गई थी फिर यहां कैसे आ गए ?

जरूरी नहीं है कि हर जगह मित्रता के नाते ही जाया जाए इंसानियत भी कोई चीज होती है और फिर अपने मित्र के दुख की घड़ी में तो मुझे शामिल होना ही पड़ेगा भले ही वह मुझे ना बुलाए। दूसरे मित्र ने कहा कथा कर सच्ची मित्रता की परख दुख तथा विपत्ति नहीं होती है। बेशक दोनों मित्रों के संबंधों में कटुता आ गई थी परंतु जब एक दूसरे पर दुखों का पहाड़ टूटता है तो दूसरा स्वयं को रोक न सका। हृदय से जो संबंध एक बार जुड़ जाते हैं वे फिर टूटते नहीं है।

दोस्तों, आज की ये पोस्ट Friendship Story in Hindi आपको कैसी लगी ये आप हमें कॉमेंट करके बता सकते है। हम लोग आगे भी ऐसी ही कहानियों आपके लिए लेकर आते रहेंगे।

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