धर्म क्या है?

धर्म का तात्पर्य धार्मिक मान्यताओं से नहीं है, बल्कि हमारे कर्तव्य से है। जैसे ही हम किसी पर कोई प्रश्न करते हैं सामने वाला तपाक से बोल उठता है, पहले अपना धर्म निभाओ उसके बाद किसी पर सवाल उठाना, वह कहना चाहता है कि अपना काम ठीक से करो फिर दूसरों पर कार्य न करने का आरोप लगाओ। हम अक्सर एक दूसरे पर उसके धर्म पर खरे उतरने की मांग करते रहते हैं, बिना यह सोचे कि धर्म वास्तव में क्या है उसकी हमारे जीवन में कितनी भूमिका है।

एक व्यक्ति का समाज में क्या धर्म होता है? एक पति या पत्नी का एक दूसरे के प्रति क्या धर्म होता है या धर्म के कितने स्वरूप हो सकते हैं? वैसे तो धर्म के अनेक पहलू है, लेकिन सबसे खास बात धर्म की यह है कि वह सबको जिम्मेदार बनाने की बात करता है। जो भी संसार में है उसका अपना एक धर्म होता है। उदाहरण के लिए पेड़ का धर्म है छाया और फल देना, नदी का धर्म है जीवनदाई जल बनाकर बहते रहना, बादलों का धर्म है जल बरसाना और सूर्य का धर्म है प्रकाश देना। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उदार होना,सदाचारी और सब व्यवहारी होना। मनुष्य का एकमात्र धर्म है प्राणी मात्र के प्रति उदारता का व्यवहार इसीलिए भारत में कर्म से अधिक महत्व सदाचार को दिया गया है।

धर्म की परिभाषा

धर्म” संस्कृत भाषा का शब्द है। यह “धृ” धातु से बना है जिसका अर्थ होता है ” धारण करने वाला ” इस तरह हम कह सकते हैं कि “धार्यते इति धर्म:” अर्थात, जो धारण किया जाये वह धर्म है। मनुष्य द्वारा जिसे धारण किया जाता है,अपने आचरण में लाया जाता है वही धर्म कहलाता है। धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख का उदय होता है, धर्म में सब कुछ मिलता है,संसार में धर्म ही सार है।

धर्म के संबंध में महाभारत अनुशासन पर्व में एक दृष्टांत का वर्णन मिलता है। एक बार हिमालय पर्वत पर शिवजी तपस्या कर रहे थे, उसी समय माता पार्वती ने उनके पास जाकर पूछा भगवान धर्म का क्या स्वरूप है? जो धर्म नहीं जानते ऐसे मनुष्य उसका किस प्रकार आचरण कर सकते हैं? इस पर शिव जी ने कहा देवी किसी भी जीव के हिंसा न करना, सत्य बोलना सब प्राणियों पर दया करना मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना। यह गृहस्थ आश्रम का उत्तम धर्म है। गृहस्थ धर्म का पालन करना, पराई स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री के रक्षा करना, बिना दिए किसी दूसरे की वस्तु को ना लेना, मांस और मदिरा को त्याग देना यह धर्म के पाँच भेद हैं, जिनसे सुख की प्राप्ति होती है।

धर्म करना जरूरी क्यों है?

धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्य को इन धर्म का पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म रहित मनुष्य मरे हुए मनुष्य के समान है। धार्मिक मनुष्य मरने के बाद भी जीवित रहता है। इसमें कोई शक नहीं है क्योंकि उसकी कीर्ति अमर रहती है, ऐसा धार्मिक मनुष्य दीर्घजीवी होता है। महाभारत शांति पर्व में कहा गया है – धर्म मनुष्यों का मूल है, धर्म ही स्वर्ग मे देवताओ को अमर बनाने वाल अमृत है। धर्म का अनुष्ठान करने से मनुष्य मरने के अनंतर नित्य सुख भोंगते हैं। महाभारत में यह भी लिखा है मनुष्य को किसी भी समय कर्म से, भय से, लोभ से या जीवन रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। क्योंकि धर्म नित्य है और सुख दुख अनित्य है। इसी प्रकार जीवन नित्य है और जीवन का हेतु अनित्य है।

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