Sad Poetry in Hindi

Sad Poetry in Hindi: नमस्कर दोस्तो, हमेशा की तरह आज फिर से हाजिर है एक नए पोस्ट के साथ जिसका टाइटल Sad Poetry in Hindi है। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट आपको पसंद आयेगा और आप इसे अपने दोस्तो के साथ जरूर शेअर करेंगे।

Sad Poetry in Hindi
Sad Poetry in Hindi

Table of Contents

तुम्हारा फैसला / अजित कुमार

दुनिया में कितना दुख–दर्द है?
जानना चाहते हो? –
किसी अस्पताल के जनरल वार्ड में जाओ ।
पहला ही चक्का तुम्हारी खुमारी मिटा देगा
दूसरा काफ़ी होगा कि तुम्हें होश में ले आए…
और इससे पहले कि तुम वहाँ से
जान बचाकर के भागो-
यह अनुभव कि तमाम लोग कितने साहस
और धीरज से झेलते हैं अपनी तकलीफ़ें
शायद तुम्हें याद दिलाए कि
ज़रा-ज़रा सी बात पर तुम किस कदर
चीखते–चिल्लाते रहे हो…
इसके बाद तो ख़ुद तुम ही तय करोगे शायद
कि शामिल होगे तुम किसमें?
नर्सिग ब्रिगेड में? या कर्सिग ब्रिगेड में?

हादसे / अजित कुमार

Sad Poetry in Hindi

कई-कई हादसों से गुज़रने के बावजूद
अपने आप को सूरमा समझने के भरम ने
जब एक बार फिर
मुझे आकाश से उतारकर धरती पर लिटाया
सभी प्रियजन-स्वजन
इलाज की भाग-दौड़ में व्यस्त हो गए-
वहाँ परदेस में लुंज-पुंज हो
मैं बेबस पड़ा था…

अनायास मुझे याद आए
मुग़लों के अंतिम सम्राट बहादुरशाह ज़फर
इस ग़म में मुब्तिला कि-
‘दो गज़ ज़मीं भी न मिली कूए–यार में’—
मुझे भी आत्मदया की गुंजलक में समेटते…

लगभग तभी मुझे मिले आप,
जफ़र साहब– एक चमत्कार की तरह
जो केवल इतना भर न था
कि वे थे ‘ज़फ़र’
और आप भी वही , गोकि दिल्लीवाले नही…
घुल मिलकर एक हुईं वतन की,
लखनऊ की,
हमारी-आपकी भूली-बिसरी तमाम यादें।

अपने हाथों को बरत सकूँ
अपने पैरों पर चल पाऊँ-
यह तो आपके अलावा कई औरों ने भी
सिखाया है
पर भेंट उन महाशय से आपके ज़रिये ही
मुमकिन हुई,
जो अतल की गहराइयों में डूब चुकने
के बाद ही ऊपर उभरे थे,
सालों फुटपाथ ही उनका ओढ़ना-बिछौना रहा
तभी तो वे
‘आर. आई. पी.’ का मतलब
‘रेस्ट इन पीस’ के अलावा
‘रिटर्न इज़ पासिबिल’ हमारे समेत सभी को
बता पाए ।

यों तो जीवन में तनिक-सी भी
ठोकर खाने के बाद
मेरे भी मुँह से बहुतों की तरह
सहसा ‘हे राम!’ निकला है
पर उसका और गाँधी के ‘हे राम’
का फ़र्क मैं कभी न जान पाता-
अगर आपके संग-साथ मेरे
जीवन का थोड़ा-सा सफ़र न बीता होता,
ज़फ़र साहब ।

लकवे से तिरछे पड़े मुँह और
अटपट हुई बोली को
सुधारते समय अपने से नफ़रत नहीं करना,
बल्कि उस को दुलराना आपने ही सिखाया

जिस क्षण आप कह रहे थे-
‘आज का दिन वह दिन है
जिसके बारे में तुम्हें शक था
यह तुम्हारे लिए कभी नहीं आएगा…’
नए सिरे से मुझे अनुभव हुआ
हम काफ़ी-कुछ भले ही कर पाएँ,
पर सब-कुछ तो अपने वश में नहीं होता-
और वह काफ़ी–कुछ भी कितना
अनिश्चित, अरूप है!

आत्म से अनात्म और अध्यात्म के
बीच जो भी अनाम या अबूझ
रिश्ते होते हों-
उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ले जाने के लिए
आपका शुक्रिया, ज़फ़र साहब!

और ही राग – अजित कुमार

टेबिल टाप पर तुम्हारी उँगलियाँ
पड़ी हुई थीं निर्जीव
और मैं प्रतीक्षा में थी दम साधे
कि अब वे हरकत करेंगी-

धिनक धिनक धिन्… धिनक धिन्…
रच दोगे तुम एक अनोखा संगीत
जिसकी लय पर मैं थिरकने लगूंगी
धिनक धिनक्… धिन्… ता…

पर वे थीं कि हिले-डुले बिना
वैसी ही थमी रहीं उसी जगह अचल
गहरे मौन का या निष्प्रभ जीवन का
एक और ही राग अलापती हुईं
जिसमें डूबती–डूबती मैं जा पहुँची अतल में ।

अपना काम / अजित कुमार

चीख़-चीख़ कर उन्होंने
दुनिया-भर की नींद हराम नहीं कर दी
नाक चढ़ा, भौं उठा
सबको नीचे नहीं गिराया
पूरी सुबह के दौरान
एक बार भी मुँह नहीं फुलाया
कोप-भवन में जाने की ज़रूरत नहीं समझी…

सचमुच सुखद था यह देखना कि
औरतें कितनी मगन हो
अपने–अपने काम में लगी हैं…

गिनती भूल चुके बूढ़े को
वह चार के बाद पाँच का गुटका
रखना सिखा रही है
जबकि वह तीन आठ दो… कुछ भी
लगाकर मगन है…

दूसरी है व्यस्त लकवामारे की कमर
सीधी करने की कोशिश में;
साथ-साथ समझा भी रही है –
पाँव उठेंगे तभी तो चलकर जौनपुर
पहुँच सकोगे।
ज़रा बताओ तो सही- घर के लिए
गाड़ी कहाँ से पकड़ोगे?
और नाम सुनके ‘घर’ का
वह तनिक सिहर-सा उठा है
भले ही उसके पैरों में कोई जुंबिश नज़र नहीं आई अभी तक।

तीसरी ने थमाया है
मरीज़ की हथेली में
स्प्रिंग का शिकंजा-
ज़रूर ही चीजों पर उसकी पकड़
मज़बूत करने को:

“कसो, ढीला छोडो, धीरे-धीरे! बार–बार”…
सबक सीधा और साफ़ था ।

ऐसा करते उसे देख
जब मैंने भी चाहा–
टोकरी में धरी कनियों को
अपनी मुट्ठी में भरूँ…
वे फिसलती चली गईं
जैसे कि उंगलियों में से रेत।

मुझे हताश देख वह बोली-
“रिलैक्स! रखो धीरज…
वक़्त के साथ ही ठीक होगा,
जो भी होगा-
जैसे कि उसी के साथ इतना कुछ
बिगड़ता चला जाता है…”

उसकी पलकों में सिमटे पूरे जीवन को
तो मैं नहीं बाँच पाया-
पर सरल हुआ देख सकना-
वह और उसकी टोली-
कितने मनोयोग से उन्हें नवजीवन देने में
लगी है
जिनमें में किसी को भी उन्होंने
अपनी कोख से नहीं जन्मा।

‘कुछ दवा, कुछ दुआ’-यह तो
सबने पहले भी सुना था-
शरीरोपचार के मरीज़ों ने
उपचार के साथ
दुलार और पुचकार का भी मतलब
अब जाना…

बहुत दिनों बाद…
बल्कि उस क्षण तो यह लगा कि-
जीवन में पहली बार-
एक साथ, एक जगह
इतना अधिक सौंदर्य
मेरी नज़र में आ समाया…

जो मुमकिन है आगे कभी बार-बार
मन में भी कौंधे ।

उनकी दास्तान / अजित कुमार

Sad Poetry in Hindi

जब उन्होंने पहली नौकरी पाई
हर दिन का सफ़र इतना लंबा था
साइकिल ज़रूरी हुई तय करने के लिए
पर उसे खरीदने के वास्ते पैसे नहीं थे।

एक मित्र से उधार मिला…
साल भर तक हर महीने सौ रुपये चुका
भरपाई हुई जिस दिन उसी रोज़ साइकिल चोरी गई-
‘अँधरऊ बटत जाँय, पँड़ऊ चबात जाँय’-
कहावत को सिद्ध करती।

तब से यह एक पैटर्न बन गया-
इधर वेतन मिला, उधर हूर्र…
फिर भी सबों की तरह उनके पास भी
कुछ-न-कुछ चीज़-बस्त इकट्ठी होती ही गई
बर्तन-भांडे, कपडे-लत्ते, काग़ज़-पत्तर, कुर्सी-मेज़, पंखे,कूलर…

और वह वक़्त भी आया, घर में सामान इतना बढा…
अकसर कहने लगीं पत्नी-
इतना कूड़ा इकटठा है, इसे फेंको,
अपने रहने के लिए थोड़ी जगह तो निकले।

हर बार वे अडंगा लगा देते-
‘सबसे पहले इस कूड़े– मुझ बूढे -को फेंको,
उसके बाद सब-कुछ को माचिस लगा देना।’

यही डायलाग उनके बीच सालो-साल चलता रहा,
इस हद तक पहुँचता कि एक रोज़
जब कबाड़ी घर की पुरानी पत्रिकायें ले जा रहा था,
वे बुरी तरह बिफर गए-
‘मुझे भी इनके साथ अपनी बोरी में बांधो ।‘

यह तमाशा कुछ पड़ोसियों ने भी देखा,
गोकि बीच-बचाव करने के लालच में जब वे नहीं पडे़
तो चारपाई और चादर ने ही बुढ़ऊ की खिसियाहट छिपाई ।

इस कथा का अन्त यों हुआ—
घरवालों की कुरेद से तंग आ
अंगड़-खंगड़ सब ठेले पर लाद
जब वे बडे़ बाज़ार में उसे बेचने को पहुँचे
और ढेर से कूपन मिले
जिनके बदले उसी बाज़ार से
मनपसंद चीज़ें ख़रीद लाने की सुविधा थी,
वे बेक़रार हो उठे-
हर ऐरे-गैरे के हाथ कुछ कूपन थमाते
और बाक़ियों को हवा में बिखराते,
वे हँसते हुए बोले— ‘यही तो असली मुद्दा है-
जीवन भर में इकट्ठा हुए कचरे से
आख़िरकार जब छुट्टी मिली,
तो दूसरा और कचरा उठा अपने घर में ले जाऊँ,
इतना भोंदू मैं नहीं हूँ…

‘नहीं चाहिए मुझे कुछ भी
कोई माल, असबाब, सामान- कुच्छ भी नहीं।’

उनकी यह बरबराहट सुन,पत्नी विलाप कर उठीं-
‘इन्हें तो प्यार था अपनी हर चीज़ से,
सब कुछ सदा छाती से चिपकाए रखते थे…
अब देखो न, अचानक हो गए ऐसे निर्मोही
मानो किसी का कोई अर्थ नहीं।’…

तब छोटकू ने इस टीप मे अपना बन्द जोड़ा-
‘दरअसल दादा जी
सामान के नहीं, सम्मान के भूखे हैं।’

इस पर राहत की साँस ले इकट्ठा घरवालों ने
जब शुरू किया कोरस
एक स्वर से– ‘हिप-हिप-हुर्रे…
‘भापाजी, तुसी ग्रेट हो’…

बुजुर्गवार के होठों पर
महज उदास और फ़ीकी-सी मुस्कान ही नज़र आई-
उन सभी के उत्साह पर पानी फेरती ।

प्रश्नोत्तर / अजित कुमार

सलाह तो यह थी कि
दिन भर जो प्रश्न तुम्हें उलझाए रखें,
उन्हें डाल दो मन के अतल गह्वर में,
अगली सुबह सरल उत्तर मिल जाएंगे।

पर एक बार जब इसे मैंने आज़माना चाहा,
अक्खी रात इधर से उधर,
फिर उधर से इधर करवट काटते ही बीती…

फिर पूरा दिन हम घोड़े बेचकर सोए-
क्या पता–
जीवन की समस्याओं का उत्तर यही हो?

शहर के बीच / अजित कुमार – अजित कुमार

शहर के बीचोबीच
जो एक बड़ा-सा फ़व्वारा है
जिसके इर्द-गिर्द
खूबसूरत बाग़ीचा है
वहाँ-वहाँ बिछी हैं
आरामदेह बेंचें

आराम भी करो
नज़ारा भी देखो-
संगीत की लय पर
आर्केस्ट्रा के संग
उछलती-कूदती रंगीन रोशनियाँ
शीतल जल की फुहारें

इंद्रजाल में
सबके सब मुग्ध-मोहित से फँसे थे

तभी सरपत के वन में
पिंडली तक लथ-पथ कीचड़ से
कास के फूल चुनता
एक नन्हा शैतान
खिलखिलाता नज़र आया।

कभी यूँ मिलें कोई मसलेहत / बशीर बद्र

Sad Poetry in Hindi

कभी यूँ मिलें कोई मसलेहत, कोई ख़ौफ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर न हो, तुझे अपना कोई पता न हो

वो फ़िराक़ हो या विसाल हो, तेरी याद महकेगी एक दिन
वो ग़ुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो

कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिलो-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर, जहाँ ज़िन्दगी का हवा न हो

वो हज़ारों बाग़ों का बाग़ हो, तेरी बरक़तों की बहार से
जहाँ कोई शाख़ हरी न हो, जहाँ कोई फूल खिला न हो

तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूँ दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो

कभी हम भी जिस के क़रीब थे, दिलो-जाँ से बढ़कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो

वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा / बशीर बद्र

वो थका हुआ मेरी बाहों में ज़रा सो गया था तो क्या हुआ
अभी मैं ने देखा है चाँद भी किसी शाख़-ए-गुल पे झुका हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मेरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहन्दियों से रचा हुआ

वही ख़त के जिस पे जगह जगह दो महकते होंठों के चाँद थे
किसी भूले-बिसरे से ताक़ पर तह-ए-गर्द होगा दबा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लान भी
मगर उस दरीचे से पूछना वो दरख़त अनार का क्या हुआ

मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चराग़ कोई चराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ

हमारा दिल / बशीर बद्र

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए
चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए

मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए

अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए

समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए

मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए

भीगी हुई आँखों का ये मन्ज़र न मिलेगा / बशीर बद्र

भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा

इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा

ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा

भूल शायद बहुत बड़ी कर ली / बशीर बद्र

भूल शायद बहुत बड़ी कर ली
दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली

तुम मुहब्बत को खेल कहते हो
हम ने बर्बाद ज़िन्दगी कर ली

उस ने देखा बड़ी इनायत से
आँखों आँखों में बात भी कर ली

आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है
बेवफ़ाई कभी कभी कर ली

हम नहीं जानते चिराग़ों ने
क्यों अंधेरों से दोस्ती कर ली

धड़कनें दफ़्न हो गई होंगी
दिल में दीवार क्यों खड़ी कर ली

मैं भी शायद बुरा नहीं होता / बशीर बद्र

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मैं भी शायद बुरा नहीं होता
वो अगर बेवफ़ा नहीं होता

बेवफ़ा बेवफ़ा नहीं होता
ख़त्म ये फ़ासला नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज-कल दिन में क्या नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो / बशीर बद्र

सुन ली जो ख़ुदा ने वो दुआ तुम तो नहीं हो
दरवाज़े पे दस्तक की सदा तुम तो नहीं हो

सिमटी हुई शर्माई हुई रात की रानी
सोई हुई कलियों की हया तुम तो नहीं हो

महसूस किया तुम को तो गीली हुई पलकें
भीगे हुये मौसम की अदा तुम तो नहीं हो

इन अजनबी राहों में नहीं कोई भी मेरा
किस ने मुझे यूँ अपना कहा तुम तो नहीं हो

तो तुम्हीं कहो / धनंजय सिंह

कोई उजली भीगी बदली
आकर कन्धे पर झुक जाए
तो तुम्हीं कहो वह भीगापन
जी लूँ या तन-मन जलने दूँ?

मैं प्यास छिपाए फिरता हूँ
बादल से, सरिता जल से भी
यद्यपि अधरों का परिचय है
बिजली से भी, उत्पल से भी

कोई हिम-खण्ड तपन मेरी
हरने को आतुर हो जाए
तो तुम्हीं कहो वह शीतलता
पी लूँ या कण-कण ढलने दूँ?

अनकही हमारी सब बातें
ये दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं

यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो तम की परतें
मैं छीलूँ या भ्रम पलने दूँ?

दिन क्यों बीत गए / धनंजय सिंह

कौन किसे
क्या समझा पाया
लिख-लिख गीत नए ।
दिन क्यों बीत गए!

चौबारे पर दीपक धरकर
बैठ गई संध्या
एक-एक कर तारे डूबे
रात रही बंध्या ।

यों
स्वर्णाभ-किरण-मंगल-घट
तट पर रीत गए ।

छप-छप करती नाव हो गई
बालू का कछुआ
दूर किनारे पर जा बैठा
बंसीधर मछुआ ।

फिर
मछली के मन पर काँटे
क्या-क्या चीत गए ।

आँख भर देखा कहाँ / जगदीश गुप्त

आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।

अटकी ही रही दीठ
वह हिमगिरी-भाल-पीठ
मेरे ही आँसू के झीने पट ओट छिपी,
देखता रहा बेबस, दी नहीं दिखाई।
आँख भर देखा नहीं, आँख भर आई।

पंक्ति-बद्ध देवदारु
रोमिल, शलथ, दीर्घ चारु
चंदन पर श्यामल कस्तूरी की गन्ध-सी
जलदों की छाया हिम शृंगों पर छाई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।

शिखरों के पार शिखर
बिंध कर दृग गए बिखर
घाटी के प्म्छी-सी गहरे मन में उतरी
बदरी-केदारमयी मरकत गहराई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।

सुना है कभी तुमने रंगों को / जगदीश गुप्त

Sad Poetry in Hindi

कभी-कभी
उजाले का आभास
अंधेरे के इतने क़रीब होता है
कि दोनों को अलग-अलग
पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।

धीरे-धीरे
जब उजाला
खेलने-खिलने लगता है
और अंधेरा उसकी जुम्बिश से
परदे की तरह हिलने लगता है
तो दोनों की
बदलती हुई गति ही
उनकी सही पहचान बन जाती है।

रोशन अंधेरे के साथ
लाली की नामालूम-सी झलक
एक ऐसा रंग रच देती है
जो चितेरे की आँख से ही
देखा जा सकता है।
क्योंकि उसका कोई नाम नहीं होता।
फिर रंगों के नाम
हमें ले ही कितनी दूर जाते हैं?
कोश में हम उनके हर साये के लिए
सही शब्द कहाँ पाते हैं?

रंगों की मिलावट से उपजा
हर अन्तर, हर अन्तराल
एक नए रंग की सम्भावना बन जाता है
और अपना नाम स्वयं ही
अस्फुट स्वर में गाता है

कभी सुना है तुमने
प्रत्यक्ष रंगों को गाते हुए?
एक साथ स्वर-बद्ध होकर
सामने आते हुए?

कभी कभी खुद से बात करो / प्रदीप

कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो।
अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

हरदम तुम बैठे ना रहो -शौहरत की इमारत में।
कभी कभी खुद को पेश करो आत्मा की अदालत में।
केवल अपनी कीर्ति न देखो- कमियों को भी टटोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

दुनिया कहती कीर्ति कमा के, तुम हो बड़े सुखी।
मगर तुम्हारे आडम्बर से, हम हैं बड़े दु:खी।
कभी तो अपने श्रव्य-भवन की बंद खिड़कियाँ खोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

ओ नभ में उड़ने वालो, जरा धरती पर आओ।
अपनी पुरानी सरल-सादगी फिर से अपनाओ।
तुम संतो की तपोभूमि पर मत अभिमान में डालो।
अपनी नजर में तुम क्या हो? ये मन की तराजू में तोलो।
कभी कभी खुद से बात करो।
कभी कभी खुद से बोलो।

ज़रूरत / अजित कुमार

Sad Poetry in Hindi

मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें
उनमें एक तुम हो।

चाहूँ या न चाहूँ:
जब ज़रूरत हो तुम,
तो तुम हो मुझ में
और पूरे अन्त तक रहोगी।

इससे यह सिद्ध कहाँ होता कि
मैं भी तुम्हारे लिए
उसी तरह ज़रूरी।

देखो न!
आदमी को हवा चाहिए ज़िन्दा रहने को
पर हवा तो
आदमी की अपेक्षा नहीं करती,
वह अपने आप जीवित है।

डाली पर खिला था एक फूल,
छुआ तितली ने,
रस लेकर उड़ गई।
पर
फूल वह तितली मय हो चुका था।

झरी पँखुरी एक: तितली।
फिर दूसरी भी: तितली।
फिर सबकी सब: तितली।
छूँछें वृन्त पर बाक़ी
बची ख़ुश्की जो: तितली।

कोमलता
अंतिम क्षण तक
यह बताकर ही गई
मैं वहाँ भी हूँ,
जहाँ मेरी कोई ज़रूरत नहीं।

दोस्तो, आपको ये पोस्ट Sad Poetry in Hindi कैसी लगी ये आप हमें कमेन्ट करके जरूर बताइएगा। हम आगे भी ऐसे ही पोस्ट आपके लिए लेकर आते रहेंगे।

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