Ramdhari Singh Dinkar Poems: रामधारी सिंह दिनकर एक प्रसिद्ध भारतीय हिंदी कवि, निबंधकार थे। इनका जन्म 23 सितंबर, 1908 को बिहार के सिमरिया में हुआ था। दिनकर ने भारत के साहित्यिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट Ramdhari Singh Dinkar Poems आपको पसंद आएगी और आप इसे आप अपने दोस्तो के साथ जरूर शेयर करेंगे।
परंपरा / रामधारी सिंह “दिनकर”
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है
पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है
परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो
मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो
लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है
परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे
और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम
परिचय – रामधारी सिंह “दिनकर”
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।।
दिल्ली (कविता) – रामधारी सिंह “दिनकर”
यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में
कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!
इस उजाड़ निर्जन खंडहर में
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे
तुझे रूप सजाने की सूझी
इस सत्यानाश प्रहर में!
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना!
महल कहां बस, हमें सहारा
केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;
अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का
गम, आँसू या गंगाजल का;
झील / रामधारी सिंह “दिनकर”
मत छुओ इस झील को।
कंकड़ी मारो नहीं,
पत्तियाँ डारो नहीं,
फूल मत बोरो।
और कागज की तरी इसमें नहीं छोड़ो।
खेल में तुमको पुलक-उन्मेष होता है,
लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है।
वातायन / रामधारी सिंह “दिनकर”
मैं झरोखा हूँ।
कि जिसकी टेक लेकर
विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।
पर, नहीं मुझ पर,
झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर
जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।
जो घटित होता है, यहाँ से दूर है।
जो घटित होता, यहाँ से पास है।
कौन है अज्ञात? किसको जानता हूँ?
और की क्या बात?
कवि तो अपना भी नहीं है।
समुद्र का पानी / रामधारी सिंह “दिनकर”
बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।
ऐसे में सुन्दरी! बेचने तू क्या निकली है,
अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर
सुकुमार वक्ष के फूलों पर?
सरकार!
और कुछ नहीं,
बेचती हूँ समुद्र का पानी।
तेरे तन की श्यामता नील दर्पण-सी है,
श्यामे! तूने शोणित में है क्या मिला लिया?
सरकार!
और कुछ नहीं,
रक्त में है समुद्र का पानी।
माँ! ये तो खारे आँसू हैं,
ये तुझको मिले कहाँ से?
आग की भीख / रामधारी सिंह “दिनकर”
धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है।
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।
मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे;
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे।
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
एक पत्र / रामधारी सिंह “दिनकर”
मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?
गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?
कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।
ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।
द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।
विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।
औ’ बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।
आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?
फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!
गाँधी / रामधारी सिंह “दिनकर”
देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
“जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो!”
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।
तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
निराशावादी / रामधारी सिंह “दिनकर”
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
भगवान के डाकिए
पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरें महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।
पक्षी और बादल / रामधारी सिंह “दिनकर”
ये भगवान के डाकिये हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरती हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश का पानी
बनकर गिरता है।
माध्यम / रामधारी सिंह “दिनकर”
मैं माध्यम हूँ, मौलिक विचार नहीं,
कनफ़्युशियस ने कहा ।
तो मौलिक विचार कहाँ मिलते हैं,
खिले हुए फूल ही
नए वृन्तों पर
दुबारा खिलते हैं ।
आकाश पूरी तरह
छाना जा चुका है,
जो कुछ जानने योग्य था,
पहले ही जाना जा चुका है ।
जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले,
उनका मिलना आज भी मुहाल है ।
चिंतकों का यह हाल है
कि वे पुराने प्रश्नों को
नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर
भीतर से फूल जाते हैं ।
मगर यह उत्तर नहीं,
प्रश्नों का हाहाकार है ।
जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है ।
कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार
उनका योगदान कविता, निबंध और ऐतिहासिक आख्यानों सहित विभिन्न शैलियों में फैला हुआ है। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट Ramdhari Singh Dinkar Poems आपको पसंद आएगी और आप इसे आप अपने दोस्तो के साथ जरूर शेयर करेंगे।
यह भी पढे: