Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi:नमस्कार दोस्तो, हमेशा की तरह आज फिर से एक नए पोस्ट Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi के साथ हाजिर है। हम उम्मीद करते है की ये पोस्ट आपको पसंद आएगी और आप इसे आप अपने दोस्तो के साथ जरूर शेयर करेंगे।
अग्निपथ
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
क्या है मेरी बारी में
जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवनक्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।
आंसूजल से सींचसींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।
टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में|
क्या है मेरी बारी में
लो दिन बीता लो रात गयी
सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठतेउठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई
धीमेधीमे तारे निकले,
धीरेधीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई
चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोतेसोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
Inspirational Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तनमन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ
सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुखदुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi
आत्मपरिचय
मैं जगजीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ,
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ।
मैं स्नेहसुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ।
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ,
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ।
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुखदुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ।
जग भवसागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ।
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना।
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बनाबना कितने जग रोज़ मिटाता,
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता।
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ।
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना,
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना।
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ,
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ।
नीड का निर्माण
नीड़ का निर्माण फिरफिर,
नेह का आह्णान फिरफिर!
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,
रातसा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पातभय से
भीत जनजन, भीत कणकण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिरफिर!
नीड़ का निर्माण फिरफिर,
नेह का आह्णान फिरफिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महलघर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिरफिर!
नीड़ का निर्माण फिरफिर,
नेह का आह्णान फिरफिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिरफिर!
नीड़ का निर्माण फिरफिर,
नेह का आह्णान फिरफिर!
Harivansh Rai Bachchan Motivational Poem in Hindi
मैं कल रात नहीं रोया था
दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चेसा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यारभरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?
मैं कल रात नहीं रोया था!
त्राहि त्राहि कर उठता जीवन
जब रजनी के सूने क्षण में,
तनमन के एकाकीपन में
कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब उर की पीडा से रोकर,
फिर कुछ सोच समझ चुप होकर
विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
पंथी चलतेचलते थक कर,
बैठ किसी पथ के पत्थर पर
जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
स्वप्न था मेरा भयंकर
रात कासा था अंधेरा,
बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्रतारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात आधी खींचकर मेरी हथेली
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगासा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरासा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
साथी, साँझ लगी अब होने!
फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कणकण में,
उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोटलिपट गृहतरुचरणों में,
वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेलघरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
गीत मेरे हरिवंशराय बच्चन
गीत मेरे, देहरी का दीपसा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिरघन,
गीत मेरे, देहरी का दीपसा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण,
गीत मेरे, देहरी का दीपसा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब,
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
गीत मेरे, देहरी का दीपसा बन।
जग विभामय न तो काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण,
गीत मेरे, देहरी का दीपसा बन।
Harivansh Rai Bachchan Short Poems in Hindi
आ रही रवि की सवारी
नवकिरण का रथ सजा है,
कलिकुसुम से पथ सजा है,
बादलोंसे अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी।
आ रही रवि की सवारी।
विहग, बंदी और चारण,
गा रही है कीर्तिगायन,
छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी।
आ रही रवि की सवारी।
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह
रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी।
आ रही रवि की सवारी।
चिडिया और चुरूंगुन
छोड़ घोंसला बाहर आया,
देखी डालें, देखे पात,
और सुनी जो पत्ते हिलमिल,
करते हैं आपस में बात;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
डाली से डाली पर पहुँचा,
देखी कलियाँ, देखे फूल,
ऊपर उठकर फुनगी जानी,
नीचे झूककर जाना मूल;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
कच्चेपक्के फल पहचाने,
खए और गिराए काट,
खनेगाने के सब साथी,
देख रहे हैं मेरी बाट;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
उस तरू से इस तरू पर आता,
जाता हूँ धरती की ओर,
दाना कोई कहीं पड़ा हो
चुन लाता हूँ ठोकठठोर;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
मैं नीले अज्ञात गगन की
सुनता हूँ अनिवार पुकार
कोइ अंदर से कहता है
उड़ जा, उड़ता जा पर मार;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘आज सुफल हैं तेरे डैने,
आज सुफल है तेरी काया’
आदर्श प्रेम
प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या
गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गा कर उसे सुनाना क्या
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या
ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड उन्हे मुरझाना क्या
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या
दे कर हृदय हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या
आज़ादी का गीत
चांदी, सोने, हीरे मोती से सजती गुड़िया
इनसे आतंकित करने की घडियां बीत गई
इनसे सज धज कर बैठा करते हैं जो कठपुतले
हमने तोड़ अभी फेंकी हैं हथकडियां
परम्परागत पुरखो की जागृति की फिर से
उठा शीश पर रक्खा हमने हिमकिरीट उजव्व्ल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
चांदी, सोने, हीरे, मोती से सजवा छाते
जो अपने सिर धरवाते थे अब शरमाते
फूल कली बरसाने वाली टूट गई दुनिया
वज्रों के वाहन अम्बर में निर्भय गहराते
इन्द्रायुध भी एक बार जो हिम्मत से ओटे
छत्र हमारा निर्मित करते साठकोटी करतल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
जाओ कल्पित साथी मन के
जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बनकर बंदी मेरे भुजबंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में जाकर मुझसे अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
कोई गाता मैं सो जाता
संस्रिति के विस्तृत सागर में
सपनो की नौका के अंदर
दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर
बहता जाता, मैं सो जाता ।
आँखों में भरकर प्यार अमर
आशीष हथेली में भरकर
कोई मेरा सिर गोदी में रख
सहलाता, मैं सो जाता ।
मेरे जीवन का खाराजल
मेरे जीवन का हालाहल
कोई अपने स्वर में मधुमय कर
बरसाता मैं सो जाता ।
कोई गाता मैं सो जाता
मैं सो जाता
साथी, सब कुछ सहना होगा
मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनकेसा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
Inspirational Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi
कहते हैं तारे गाते हैं
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमनें कान लगाया,
फ़िर भी अगणित कंठो का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं
स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथ्वी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओसकणों में तारों के नीरव आंसू आते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं
उपर देव तले मानवगण,
नभ में दोनों गायनरोदन,
राग सदा उपर को उठता, आंसू नीचे झर जाते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं
मेरा संबल
मैं जीवन की हर हल चल में
कुछ पल सुखमय,
अमरण अक्षय,
चुन लेता हूँ।
मैं जग के हर कोलाहल में
कुछ स्वर मधुमय,
उन्मुक्त अभय,
सुन लेता हूँ।
हर काल कठिन के बन्धन से
ले तार तरल
कुछ मुद मंगल
मैं सुधि पट पर
बुन लेता हूँ।
मुझसे चांद कहा करता है
चोट कड़ी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है|
मुझ से चाँद कहा करता है
तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वीतल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है
तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है
साथी सो ना कर कुछ बात
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में,
अन्त चिर अज्ञात
साथी सो न कर कुछ बात।
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और
आधी रात आधी बात
साथी सो न कर कुछ बात।
हो गयी मौन बुलबुलेहिंद
[सरोजिनी नायडू की मृत्यु पर]
मधुबन की सहसा रुकी साँस,
सब तरुवरशाखाएँ उदास,
अपने अंतर का स्वर खोकर
बैठे हैं सब अलि विहगवृंद!
चुप हुई आज बुलबुलेहिन्द!
स्वर्गिक सुखसपनों से लाकर
नवजीवन का संदेश अमर
जिसने गाया था जीवन भर
मधु ऋतु की जाग्रत वेला में
कैसे उसका संगीत बन्द!
सो गई आज बुलबुलेहिन्द!
पंछी गाने पर बलिहारी,
पर आज़ादी ज़्यादा प्यारी,
बंदी ही हैं जो संसारी,
तन के पिंजड़े को रिक्त छोड़
उड़ गया मुक्त नभ में परिंद!
उड़ गई आज बुलबुलेहिंद!
मौन और शब्द
एक दिन मैंने
मैन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,
एक गहरे आनंद में,
सन्निपातग्रस्त सा,
विवश कुछ बोला था;
सुना, मेरा वह बोलना
दुनियाँ में काव्य कहलाया था।
आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,
अब न पीड़ा है न आनंद है
विस्मरण के सिन्धु में
डूबता सा जाता हूँ,
देखूँ,
तह तक
पहुँचने तक,
यदि पहुँचता भी हूँ,
क्या पाता हूँ।
क़दम बढाने वाले : कलम चलाने वाले
अगर तुम्हारा मुकाबला
दीवार से है,
पहाड़ से है,
खाईखंदक से,
झाड़झंकाड़ से है
तो दो ही रास्ते हैं
दीवार को गिराओ,
पहाड़ को काटो,
खाईखंदक को पाटो,
झाड़झंकाड़ को छांटो, दूर हटाओ
और एसा नहीं कर सकते
सीमाएँ सब की हैं
तो उनकी तरफ पीठ करो, वापस आओ।
प्रगति एक ही राह से नहीं चलती है,
लौटने वालों के साथ भी रहती है।
तुम कदम बढाने वालों में हो
कलम चलाने वालो में नहीं
कि वहीं बैठ रहो
और गर्यवरोध पर लेखपरलेख
लिखते जाओ।
एक नया अनुभव
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ।
चिड़िया नें मुझ से पूछा, ‘तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है?’
मैंने कहा, ‘नहीं’।
‘तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?’
‘नहीं।’
‘तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?’
‘नहीं।’
‘जान है?’
‘नहीं।’
‘तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?’
मैनें कहा, ‘पर तुमसे मुझे प्यार है’
चिड़िया बोली, ‘प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?’
एक अनुभव हुआ नया।
मैं मौन हो गया!
कौन मिलनातुर नहीं है ?
आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरन्तर पूछती है,
कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा शान्त?
कौन मिलनातुर नहीं है?
गगन की निर्बन्ध बहती वायु प्रति पल पूछती है,
कब गिरेगी, टूट, तेरी देह की दीवार,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा मुक्त?
कौन मिलनातुर नहीं है?
सर्व व्यापी विश्व का व्यक्तित्व प्रति क्षण पूछता है,
कब मिटेगा, बोल, तेरे अहं का अभिमान,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा पूर्ण?
कौन मिलनातुर नहीं है?
आज की ये पोस्ट Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi आपको कैसी लगी ये आप कमेन्ट करके जरूर बताइएगा। हम आगे भी आपके लिए ऐसे ही मजेदार पोस्ट आपके लिए लेकर आते रहेंगे।
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